जब से आयें हो तुम इस हृदय कुंज में,
जो थी मूर्छित वो कलिया पुनः खिल गई।
जो थी पतझड़ सी बगिया बिना प्राण के,
वो बसंती दुल्हन से पुनः मिल गई।
जब से आयें हो तुम।
होता इस युग में न ही स्वयंवर कहीं,
भेदना होता बाणों से अंबर नहीं।
दृष्टि होती नहीं मीन की आँख पर,
तोड़ता कोई धन्वा धनुर्धर नहीं।
तुमको देखा लगा मेरे रघुवर हो तुम,
केतकी से बदल मैं कमल हो गई।
जब से आयें हो तुम।
मुश्किलों में सदा मेरे संग तुम रहो,
काटों से भी भरे मन में संग तुम चलो।
माँ सिया सा पतिव्रत हो मेरा चलन,
और पुरुषों में उत्तम प्रिय तुम बनो।
और पुरुषों में उत्तम प्रिय तुम बनो।
तुम मृदुलता की प्रतिमा हो हे प्राणप्रिय,
देख तुमको ये अँखिया सजल हो गईं।
जब से आयें हो तुम इस हृदय कुंज में,
जो थी मूर्छित वो कलिया पुनः खिल गई।
जो थी पतझड़ सी बगिया बिना प्राण के,
वो बसंती दुल्हन से पुनः मिल गई।
जब से आयें हो तुम।
— रागिनी झा