ले चल पगले मझधार मुझे, दे-दे बस अब पतवार मुझे ।
इन लहरों के टकराने पर, आता रह-रह कर प्यार मुझे ।।
मत रोक मुझे, भयभीत न कर, मैं सदा कंटीली राह चल,
मेरे गति के पतझारों में ही नवनूतन मधुमास पला ।
मेरे खंडहर की स्वांसो में, जीवन की सब्ज़ बाहार लुटी,
इन जीर्ण घरोंदों में मेरा, रंगीन बसंती प्यार पला ।
फिर कहाँ झुका पाएगा यह, पगले जर्जर संसार मुझे ।
इन लहरों के टकराने पर, आता रह रह-कर प्यार मुझे ।।
ले चल पगले मझधार मुझे।
मैं हूँ अपने मन का राजा, इस पर रहूँ, उस पार चलूँ ।
मैं मस्त खिलाड़ी हूँ ऐसा, जी चाहे जीतूँ , हार चलूँ ।
मैं हूँ अबाध अविराम अधक, बंधन मुझको स्वीकार नहीं,
मैं नहीं अरे ऐसा राही जो, बेबस सा मन मार चलूँ ।
दोनों ही ओर निमंत्रण हैं, इस पार मुझे उस पार मुझे,
इन लहरों के टकराने पर, आता रह रह कर प्यार मुझे ।।
ले चल पगले मझधार मुझे।
कब रोक सकी मुझको चितवन, मदमाते कजरारे घन की,
कब लुभा सकी मुझको बरबस, मधुमस्त बहारें सावन की ।
जो मचल उठे अनजाने ही, अरमान नहीं मेरे ऐसे,
राहों को समझा लेता मैं, सब बात सदा अपने मन की ।।
इन तीखी पैनी धारों का, कर लेने दो शृंगार मुझे,
इन लहरों के टकराने पर, आता रह रह कर प्यार मुझे ।।
ले चल पगले मझधार मुझे।
गीत रचना – डा. कमल सत्यर्थी
स्वर – श्री उमाशंकर चंदोला